भगवान् सदैव हमारे साथ हैं...

आज जिस कहानी को मैं आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूं उसका मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव है। यह कहानी मैंने एक चर्चित समाचार पत्र के लेख में कई वर्षों पूर्व पढ़ी थी। यह कहानी है एक तेजस्वी और तपस्वी साधु की, जो हर क्षण प्रभु भक्ति में लीन रहते थे। उन महात्मा ने बाल अवस्था में ही सन्यास ग्रहण कर अपने घर का परित्याग कर दिया था और ईश्वर की खोज में इधर-उधर भटकने लगे। कई साधन किए, बहुत सी विधियों का अनुसरण भी किया परन्तु ईश्वर को पाने में असफल रहे। अंततः उन्होंने कठोर तपस्या करने का प्रण लिया। ईश्वर के ध्यान में कई वर्षों तक अत्यंत ही कठोर व्रत और साधना की। कई वर्षों की तपस्या रंग लाई, ईश्वर उनकी तपस्या से इतने प्रसन्न हुए कि ना सिर्फ उनको दर्शन दिए अपितु उन से कोई वर मांगने को भी कहा। साधु को धन, ज्ञान का लोभ नहीं था। वह तो हमेशा प्रभु की भक्ति चाहते थे। इसलिए उन्होंने ईश्वर से कहा हे प्रभु! अगर आपको कुछ वर देना ही है तो आप हमेशा मेरे साथ रहें यही मेरी इच्छा है। परमपिता ने उनकी तपस्या के फलस्वरूप, उनकी इस इच्छा को पूर्ण किया। जब भगवान् अपने धाम लौटे तो महात्मा ने गौर किया कि जब वह चलते हैं तो उनके साथ साथ, उनके पीछे किसी ओर के पद चिह्न भी छूट जाते हैं। साधु बुद्धिमान था वह समझ गया कि यह पद चिह्न परम कृपालु ईश्वर के हैं। साधु को पद चिन्हों को देखकर हमेशा यह अहसास रहता कि भगवान् सदैव उनके साथ हैं। इसी तरह कई वर्ष बीत गए। परन्तु काल चक्र में एक ऐसा समय आया जब साधु की दशा अत्यंत ही दयनीय हो गई। वह कई प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो गए तथा एक गरीब की भांति जीवन व्यतीत करने लगे। भटकते हुए वह एक रेगिस्तान में जा पहुंचे। रेगिस्तान की गर्म रेत पर चलते हुए उन्होंने देखा कि कभी जो पद चिह्न उनके साथ - साथ चलते थे वह अब नहीं हैं। साधु ने इस पर ध्यान ना देते हुए कर्म करने की ठानी और परिश्रम से अपने बुरे समय को बदलने का प्रयास करने लगा। साधु की मेहनत रंग लाई, उनके जीवन में खुशहाली फिर लौट आई। ऐसे ही समय बीतता गया। एक बार उसी रेगिस्तान से साधु का गुजरना हुआ तब उसने देखा कि भगवान् के पद चिन्ह दोबारा उसके साथ साथ चल रहे हैं। इस बार साधु से रहा न गया। वह आसमान की तरफ देख कर मुस्कुराया और भगवान् को संबोधित करते हुए बोला जब दुःख आता है तब सभी साथ छोड़कर चले जाते हैं यहां तक कि भगवान् भी परन्तु जब सुख़ आता है तभी सभी साथ आ जाते हैं।
"सुख के सब साथी दुःख में ना कोय।"
साधु आगे बढ़ चला। कुछ दूर चला ही था कि आकाश वाणी हुई, "हे पुत्र! मैने कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा मैं सदैव तुम्हारे साथ था दुःख में भी और सुख में भी। सुख के समय मैं सदैव तुम्हारे साथ कदम से कदम मिला कर चला परन्तु जब समय विपरीत था तब मैंने तुम्हारे कोमल पैर इस गर्म दुःख की रेत पर पड़ने ही नहीं दिए। मैने दुःख के समय तुम्हें कभी अपनी गोद से उतारा ही नहीं।"
अर्थात भगवान् के कहने का तात्पर्य था कि दुःख के समय जो पद चिन्ह् तुम्हें अपने मालूम होते थे वह तुम्हारे नहीं मेरे पद चिन्ह् थे। साधु की आंखो से अश्रु धारा बहने लगी वह बार बार प्रभु के आगे क्षमा याचना करने लगा। भगवान् तो बहुत दयालु हैं उन्होंने अपने भक्त को अपने ह्रदय में स्थान दिया। कहानी की शिक्षा यह है कि कोई साथ हो ना हो परम कृपालु ईश्वर सदैव हमारे साथ होते हैं। जब समाधान के सभी रास्ते बंद हो जाते है उस समय भी कोई ना कोई खुली खड़की हमारी राह तक रही होती है, भगवान् सदैव हमारा मार्ग दर्शन करते हैं। अगर यह बात हम सैदैव अपने मन में रखे कि भगवान् सदैव हमारे साथ हैं तो बड़े से बड़े दुःख के समय में भी हम कभी होंसला नहीं हारेंगे और अपने दुखों के निवारण हेतु हमेशा प्रयासरत रहेंगे।
धन्यवाद्।



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