"एक बीमारी ने बता दिया कि कितना आसान है हमको हमारे घुंटनो पर लाना। यही मानवता की असलियत नहीं, यही मानवता का अनकहा सच नहीं है कि हमको गुलामी की आरज़ू है। आज़ादी की उजली किरणें हमारे जीवन की खुशियां धुंधली कर देती हैं। पहचान और सत्ता ढूंढने में हम लोग अंधे हो जाते है। अंततः हम लोग थक हार कर घुटनों पर आ ही जाते हैं"
ये पंक्तियां एक फ़िल्म से प्रेरित हैं परन्तु मानव जाति के लिए ये पंक्तियां उतनी ही सत्य हैं जितना कि सूर्य का सत्य होना। हर जगह हमने बटवारे की रेखा खींच दी है। जिस प्रकार मकड़ा अपने चारों ओर जाल बुनता रहता है और अंततः अपने ही बनाए जाल में फस कर मार जाता है उसी प्रकार हम तेरे मेरे के झगड़ों में इतना उलझ चुके हैं कि अब हम इससे चाह कर भी बाहर निकालने में असमर्थ मालूम होते हैं। कोरोना जैसी महामारी का अचानक ऐसा विकराल रूप धर कर आना केवल संयोग मात्र नहीं है। ये प्रकृति की सम्पूर्ण मानव जाति को एक चेतावनी है कि अगर हमने सीमित प्राकृतिक सनाधनों और नियमों का पालन सही तरीके से नहीं किया तो ये तो केवल एक झांकी मात्र ही है आपने वाला समय इससे कई गुना बड़ी विपत्तियों का समय होगा।
हमने अपने और दूसरे दोनों के विनाश का प्रबंध ऐसा किया है कि भले ही हम कितने ही उनको अपने हित का बता दें परन्तु अंततः वह विनाशक ही साबित होंगे। हमने अपना मूल स्वभाव छोड़ कर भोग और वासना को ही एक मात्र लक्ष्य बना लिया है। विकास के नाम पर हमने नदियों को गन्दा किया, जंगल काटे, पशुओं को अपना भोजन बनाया, प्राकृतिक संसाधनों का दुरूयोग किया। क्या हम अब भी यह जानने में असमर्थ हैं कि यह महामारी हमारे महा विनाश का एक छोटा सा स्वरूप मात्र हैं।
दुनिया भर की तमाम सरकारें आज विफल साबित हो चुकी हैं और उनके विफल होने का कारण उनकी नीतियां नहीं अपितु उनके द्वारा बनाई गई नीतियों का सही तरीके से लागू ना होना है। क्योंकि मानवता समाप्त हो चुकी है इसलिए व्यवस्था में बैठे लोग अपना काम सही से नहीं करते, गरीबों से पहले अपने बारे में सोचते हैं, सरकार द्वारा दिए गए १ रुपए में पहले अपने हिस्से के बारे सोचते हैं। सब अपने हिस्से लेते लेते लाचार गरीबों का हिस्सा भी खा जाते हैं। मानवता केवल लोग सोशल मीडिया या वीडियो बनाने के लिए ही बचा कर रखते हैं। यह काम पहले नेता करते थे आज जनता कर रही है। मदद और सेवा के नाम पर केवल ढोंग परोसा जा रहा है। कभी कभी मुझे लगता है इस विपत्ति का आना भी जरूरी था। विपत्ति के समय पता चल जाता है कि कौन अपना है और कौन पराया। और इस विपत्ति के समय तो कोई अपना रहा ही नहीं सिर्फ अपने धन को छोड़ कर। धन भी धीरे धीरे साथ छोड़ रहा है। जिस व्यक्ति पर इस विपत्ति का सबसे ज्यादा कहर बरपा है उसको जीते जी तो छोड़िए मारने के बाद भी अपनों का साथ नसीब नहीं हुआ। लोगों ने उन का भी अंत इस काल में देखा है जिनको एक झलक पाने के लिए हजारों लोग घंटों टकटकी लगाए धूप में खड़े रहते थे, अंतिम क्रिया में केवल १० से २० लोग ही उनके पास थे। अपना भविष्य बनाने में हमने अपने वर्तमान को ही समाप्त कर दिया। हथियारों की दौड़ में हम स्वास्थ्य को भूल गए।
0 टिप्पणियाँ