नेपाल में शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वन के तराई क्षेत्र में महारानी महामाया देवी के अपने नैहर, देवदह जाते हुए रास्ते में एक अद्भुत बालक को जन्म दिया। जन्म के 7 दिन बाद अपनी माता को उसने खो दिया। इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय व शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र के पालन पोषण की जिम्मेदारी अपनी दूसरी रानी और उस बालक की मौसी महाप्रजावती (गौतमी) को दी। जन्म के पांच दिन बाद नामकरण समारोह में आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया।
पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सुर में भविष्यवाणी की, “यह बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान महात्मा बनेगा”। बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, अर्थात “वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो”। सिद्धार्थ का हृदय बचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। आज उन्हीं सिद्धार्थ के जन्मदिन को हम सभी बुद्ध जयंती के रूप में विश्व भर में उत्सव की भांति माना रहे हैं। पिता के बालक का उसका महात्मा होना कतई स्वीकार न था इसलिए उसको सभी सुविधाएं उसके महल में ही प्रदान की गई।
गुरु विश्वामित्र के पास सिद्धार्थ ने वेद और उपनिषद् के साथ - साथ, राजकाज और युद्ध-विद्या की शिक्षा ली। सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह कन्या यशोधरा के साथ हुआ। यशोधरा ने उनके पुत्र राहुल को जन्म दिया। पिता से जिद्द कर उन्होंने नगर भ्रमण की व्यवस्था की। भ्रमण के दौरान उन्होंने एक बूढ़े, एक रोगी, एक मृत और एक महत्मा का दर्शन हुआ। तब उनके सारथी ने उनको जीवन ज्ञान उपदेश दिया। सिद्धार्थ की अंतरात्मा विचलित हो उठा। सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े।
छः वर्ष कठोर तपस्या भी जब सफल न हो सकी तब सिद्धार्थ ने माध्यम मार्ग अपनाया। गुरु आलार कलाम से संन्यास काल के दौरान शिक्षा प्राप्त की। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे कठोर तपस्या की। ३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता ने उसी पीपल वृक्ष से पुत्र प्रप्ति की मन्नत मांगी थी। पुत्र प्राप्ति के पशचात् वह सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर वृक्ष के निकट पहुँची। ध्यानास्थ सिद्धार्थ को वहाँ बैठा देख उसे लगा मानो वृक्षदेवता स्वयं मानव देह धरकर बैठे हों। सुजाता ने अपनी खीर को बड़े आदर से सिद्धार्थ को भेंट की और कहा- “जिस प्रकार इस वृक्ष से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई है, उसी प्रकार आपकी भी हो।” उसी रात वैशाखी पूर्णिमा के दिन ध्यानास्थ सिद्धार्थ को सच्चा बोध हुआ और वह सिद्धार्थ से बुद्ध हुए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया। बुद्ध के गौत्र का नाम गौतम था जिस कारण वह गौतम बुद्ध के नाम से विख्यात हुए।
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है।
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