हाल ही में कथावाचक देवी चित्रलेखा जी का एक वीडियो बहुत तेज़ी से वायरल हुआ जिसमें वह यह कहती हुई नज़र आ रही हैं कि जब अज़ान की आवाज़ सुनाई दे तब हमें भागवत कथा रोक कर अल्लाह को याद करना चाहिए। लेकिन यह वीडियो काफी पुराना है जिसके एक हिस्से को वायरल किया जा रहा है। निश्चित रूप से चित्रलेखा जी का ऐसा बोलना सही नहीं था। इसी भगवत गीता का उपदेश देने के लिए भगवान् श्री कृष्ण ने विश्व इतिहास में पहली बार समय को भी रोक दिया था। उसको केवल इसलिए रोक देना क्योंकि वह एक विशेष समुदाय को आहत करता है, सही नहीं है। और मुझे तो आज तक यह समझ नहीं आया कि दूसरे धर्म के लोग अज़ान के समय अपना काम क्यों रोकें भला और अगर कोई कथा या पूजा अज़ान के समय हो रही है तो विशेष समुदाय इससे आहत कैसे हो जाता है? और अगर कोई आहत होता भी है तो हो जाए। अगर हम एक स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक देश के वासी हैं तो हमें यह पूरा अधिकार है कि हम व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों तरह से, किसी भी समय अपने धर्म की परंपराओं का पालन करते रहें। अज़ान के समय शोर नहीं होना चाहिए यह केवल एक विशेष समुदाय की मान्यता हो सकती है परन्तु अपनी एक धार्मिक रीत को दूसरे धर्मों और पूरे देश पर थोपना कहां तक उचित है? शायद इसी कारण लोग इतना भड़क गए परन्तु एक वायरल वीडियो की आड़ में पूरे संत समाज और सभी कथा वाचकों की छवि को धूमिल करना, मात्र एक आर्य समाजी एजेंड़ा मालूम होता है। इस सब में मोरारी बापू और चिन्मय स्वामी को उनके पुराने किसी वीडियो या कृत्य के लिए घसीटना अनुचित है। अगर कोई सार्वजनिक मंच से सभी धर्मों का सम्मान करने के लिए कह रहा है या दूसरे धर्मों के सम्मान में कुछ अपनी व्यक्तिगत राय रखता है तो यह आप पर निर्भर है कि आप उसको स्वीकार करें या ना करें परन्तु सनातन संस्कृति के कथावाचकों को जिहादी और भगवान् की कथों को कथा जिहाद बोलना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। हमारी सनातन संस्कृति में व्यास पीठ का स्थान और सम्मान उच्चतम है, और व्यास पीठ पर विराजमान व्यक्ति शुकदेव जी के सामान माना जाता है। आप व्यास पीठ के स्थान की कीर्ति इस प्रसंग से अच्छे से जान सकते हैं:
शुकदेव महाभारत काल के मुनि थे। वे वेदव्यास जी के पुत्र थे। वे बचपने में ही ज्ञान प्राप्ति के लिये वन में चले गये थे। राजा परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र थे। जब परीक्षित गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर भगवान् श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। जब परिस्थिति वश ऋषिकुमार श्रृंगी ने परीक्षित को श्राप दिया कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प के डसने से आपकी मृत्यु होना जाएगी। तब राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिनों को ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में व्यतीत करने का संकल्प कर लिया। वह राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा केवल चीर वस्त्र धारण कर गंगा के तट पर बैठ गये। तब नारद, वेदव्यास सहित आदि ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने अपने शिष्यों के साथ उनके दर्शन को पधारे। तब राजा परीक्षित ने उनसे श्री मद्भागवत कथा सुनने का आग्रह किया परंतु सभी ने अपनी असमर्थता जता कर अपने हाथ खड़े कर लिए। तब वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों, राजा परीक्षित सहित उनके पिता वेदव्यास जी जिन्होंने श्री मद्भागवत की रचना की है, उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी में कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है।"
इस छोटे से प्रसंग को यहां उलेखित करने का उद्देश्य केवल व्यास पीठ और व्यास पीठ पर विराजमान व्यक्ति के स्थान और सम्मान का वर्णन करना है।
मोरारी बापू जैसे परम पूज्य संत और कथा वाचक जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राम कथा के प्रचार प्रसार में लगा दिया उन पर जब कोई ऐसे अच्छेप लगाए जाते हैं तब हृदय में पीड़ा होती है। आप उनको पसंद करें या ना करें यह आपका व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है परन्तु किसी व्यक्ति विशेष के लिए निराधार कुप्रचार करना ठीक नहीं है। उनका सनातन संस्कृति के प्रसार प्रचार में अभूतपूर्व योगदान है एक पल में उसको ऐसे धूमिल नहीं किया जा सकता।
धन्यवाद्!
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