ग़रीब और गरीबी - भाग १

आज तो जहां देखो उधर गरीबों की बात हो रही है परन्तु गरीबों की बात गरीबों के लिए हो रही है? हमारे भारत देश में हमेशा से एक स्वरूप रहा है आप अगर गरीबों की बात करें तो आप अच्छे वक्ता बन जाएंगे और अमीर से गरीब हो जाए तो अच्छे इंसान। यहां तो जब तक कोई नेता अपने आप को अमीर होते हुए भी गरीब साबित ना करे तब तक वह एक अच्छा नेता नहीं बन सकता।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गरीबों या दीनों की कोई बात नहीं होनी चाहिए परन्तु क्या केवल बातों से किसी का पेट भरा जा सकता है, क्या केवल संवाद से उनकी दुःख तकलीफों को दूर किया जा सकता है, क्या सिर्फ गरीबी की चर्चा से गरीबी दूर की जा सकती है। उत्तर हम सभी जानते हैं, नहीं। जितना मंथन, बातें, संवाद या चर्चा की जाती हैं अगर उसका केवल २५% भी उनके लिए काम किया जाता तो आज हमारे देश की इतनी बड़ी आबादी गरीबी रेखा से जीवन यापन करने पर मजबूर ना होती। कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाला ये भारत वर्ष गरीब देशों की श्रृंखला में ना गिना जाता है। आज की स्थिति के लिए हम कब तक मुगलों और अंग्रेज़ों को दोष देते रहेंगे, हम यह मानना ही नहीं चाहते की हमें आज़ाद हुए ७० साल हो चुके हैं यानी की लगभग ७ दशक। और ७ दशक में किसी भी देश का काया कल्प हो सकता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इसमें सरकार की मुख्य भूमिका रही है परन्तु यह समाज भी इस अवस्था का उतना ही दोषी है जितना कि सरकारें। गरीबी हटाओ जैसा नारा लेकर एक महिला नेता ने इस देश पर बहुत लंबे समय तक राज किया गरीबी तो ना हटा सकीं इसलिए उन्होंने गरीबों को ही हटाना शुरू कर दिया था। आज की भयवाह स्थिति की दोषी तो इतने साल राज करने वाली कांग्रेस पार्टी भी नहीं है जितना कि ६ साल से शासन कर रही नरेंद्र मोदी सरकार है। नरेंद्र मोदी केवल इसलिए सत्ता हासिल कर सके क्योंकि वह गरीब मजदूरों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि अगर उनका कोई भला कर सकता है तो वह उनकी सरकार है। लोगों को आज़ादी के बाद इतनी ज्यादा उम्मीद किसी से ना थीं जितना कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की भाजपा सरकार से थी। कारण चाहे कुछ भी रहे हों परन्तु उनका यह सपना कोरॉना काल में एक झटके में टूट गया। लोग समझते थे कि एक व्यक्ति जो स्वयं गरीबी से उठ कर आया है वह उनके बारे में ज्यादा नहीं तो कुछ तो सोचेगा। परन्तु राजगद्दी राजा को निरंशुक कर ही देती है, राजा बनने के पश्चात् संवेदना कहीं मर सी जाती है। अगर नरेंद्र मोदी को दोष ना भी दिया जाए तो व्यवस्था में बैठे उन लोगों का क्या जो उच्च पदों और मानदेय पर होते हुए भी गरीबों और मजदूरों के एक एक रुपए पर अपनी बहसी नज़र रखते हैं, आदेशों के पालन से पहले अपने नजायज भरण पोषण के बारे में सोचते हैं। 



मीडिया को हम आज इतना ज्यादा महत्व देने लगें हैं कि आज पूरे विश्व की मीडिया अपने आपको एक राजनीतिक पार्टी से कम नहीं समझती है। निष्पक्षता के नाम पर सब अपने एजेंडे चलते हैं। यहां कोई निष्पक्ष शेष नहीं रहा या तो कोई समर्थन में है या फिर विरोध में। इतने दिनों के लोक डाउन के
 पश्चात् अचानक से इस देश के मीडिया को गरीबों और मजदूरों की याद कैसे आ गई? तो जवाब है उनको याद आयी नहीं याद दिलवाई गई है वह भी देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों द्वारा। बंद के दौरान उद्योगों के साथ साथ उद्योगपतियों की भी कमर टूट गई क्योंकि उनका सामान बिक ही नहीं रहा था इसलिए अदृश्य रूप से लॉक डाउन को खुलवाने की कोशिश की गईं। इसके लिए बलि का बकरा बनाया गया गरीब मजदूरों को। एकाएक मीडिया द्वारा यह मांग उठाई गई की गरीब मजदूर चाहते हैं कि लॉक डाउन जल्दी से जल्दी खोला दिया जाए। ऐसा नहीं है कि गरीब मजदूरों को घर नहीं जाना था उनके मन में भी यह इच्छा थी कि वह घर जाएं। मुसीबत के समय सभी को अपना घर, अपना गांव याद आता है। परन्तु मीडिया के इस कुप्रचार के कारण इस भावना को बल मिला की मजदूरों को अपने घर के लिए प्रस्थान करना चाहिए। 
मजदूरों के पलायन की एक मुख्य वजह हमारे राज्यों और उनके मुख्यमंत्रियों का उनके प्रति जो व्यवहार और भेदभाव रहा, वह है। जिन उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों के श्रम ने महाराष्ट्र और राजस्थान  जैसे वित्तीय राज्य बनाए, जब मुसीबत का पहाड़ उन पर टूटा तो उनको उन्होंने बेसहारा छोड़ दिया, उनके लिए एक राज्य दो समय के भोजन की व्यवस्था भी ना कर सके। मुख्यमंत्रियों ने पहले दिन से यह मांग करनी शुरू कर दी कि यू पी और बिहार अपने लोगों को यहां से ले जाए। आम जनता भी गरीबों की कोई मदद नहीं करती बस अफसोस करके रह जाती है।
धन्यवाद्!

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